भाषा का प्रश्न प्रेमपत्रों के संदर्भ....

प्रेम में आदमी एकदम सा अन्धा नहीं हो जाता। शुरु-शुरु में
दृष्टि कमजोर हो जाती है। इसका प्रमाण यह है क जिस
लड़की से वह प्रेम करता है, वह एकाएक बहुत सुन्दर लगने
लगती है, ज़रुरत से कुछ ज़्यादा। इधर आँखों की रोशनी कम
पढ़ने लगती है, उधर कन्या का चेहरा ज्यादा प्रकाशमय
लगता है। इस सोचने की – सी हालत में जब वह जीवन
का पहला प्रेमपत्र लिखता हैं, तब उससे पता लगता है
कि प्रेमपत्र लिखना प्रेम करने से ज़्यादा कठिन काम है।

साहित्य कर्म से पलायन नहीं बल्कि एक किस्म की कर्म में
खुसपौठ है – इस बात का अहसास उसे पली बार होता है।
फिर वह सफल हो या असफल, पर इतना समझ जाता है
कि प्रेमपत्र लिखना अलग बात है और प्रेम
करना दूसरी चीज़ है। इनका परस्पर कोई ताल्लुक नहीं। फूहद्
प्रेमी बड़े अच्छे लेखक मिलेंगे और अच्छे प्रेमियों के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर हो सकता है। या न हो,
तो भी क्या है ?
अब मुझे ही लो। लेखन – कला के निजी हितों के लिए
इस्तेमाल करना तब मुझे ग़लत नहीं लगता था, जब मैं किसी के
लिए प्रेमपत्र लिखता था। इस कार्य में मेरी सफलता कुछ
रचनाएँ सुन्दर बन पड़ीं से अधिक नहीं रही और
जैसा कि होता है, सुन्दर रचनाचों का कोई ख़ास असर
नहीं हुआ। रचनाएँ सुन्दर होन से क्या होता है ? हम जिन्हें वे
रचनाएँ भेजते है, उन्हें सौन्दर्य की पहचान तो हो ! वे
यदि अस्वीकृति की स्लिप लगाकर भेज दें, तो व्यर्थ है
सारी सुन्दरता।
मेरे साथ तो जो सलूक सम्पादकों ने मरी आरंभीक रचनाओं के
मामले में किया, लगभग वही बेरुखी उन लड़कियों ने अपनाई,
जिन्हें मेंने प्रेमपत्र लिखें। सम्पादकों को तोअ ख़ैर, मैं रचनाऎं
भेजता रहा, क्योंकि इन मामलों में उम्र विशेष आदत
नहीं होती, पर उन्हे कब तक भेजता, जो ड़ाक ग्रहण करते-
करते प्रौढ़ होने लगीं या पाणिग्रहण कर चली गयीं।
शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम में प्रेमपत्र् लिखने की सोई
एक्सरसाइज़ नहीं होती। ये पाठ्यक्रमेतर गतिविधियाँ हैं, जिन
पर मार्क्स मिलते हैं, न प्रशंसा। हाईस्कूल के ज़माने में हमें
पत्र लिखने की शिक्षा अवश्य दी गयी, जैसे यह
कहा जाता कि अपने मित्र को पत्र लिखकर बताओ कि तुमने
गर्मिंकी छुट्टियाँ कैसे बिताईं या अपने पताजी को पत्र
लिखकर बताओ कि परिक्षा के पर्चे कैसे गये ?
पहला प्रेमपत्र लिखना बढ़ाई सिरपच्ची का काम निकला।
जो भी सम्बोधन दिमाग़ में आये, उनमें अधिकांश घटिया लगे।
हम साम्राज्यवाद, सामन्तवाद और छायावाद के खिलाफ़ रहे
हैं, हम आखिर उस पिछद्ई शब्दावली को कैसे स्वीकार करते
जो प्रेमपत्रों में लिखी जाती है। यह प्रश्न सचिबालय में
हिन्दी में पत्र-व्यवहार की समस्या से कम महत्वपूर्ण
नहीं है। मैं जानना चाहूँगा कि हमारी राष्ट्रभाषा प्रचार
की संस्थाएँ इस दिशा में क्या कर रही हैं ? क्या वे
नहीं जानती कि प्रेमपत्र राष्ट्रभाषा के प्रचार का श्रेष्ठ
माध्यम हैं। ख़ासकर वे पत्र, जो हिन्दी – भाषी युवकों ने
अहिन्दी-भाषी कन्याओं को लिखे हैं या वे उत्तर,
जो अहिन्दी भाषी युवकों के प्रेम-निवेदन पर
हिन्दीभाषी युवतियों ने दिये हैं। यदी हमें हिन्दी का प्रचार-
प्रसार बढ़ाना है, तो प्रेमपत्रों के भी, व्याकरण और
वर्तनी की भूलों में सुधार आदि की समस्या पर ध्यान
देना होगा।

हिन्दी विश्व स्तर की भाषा बनने जा रही है। कल
हमारे युवक संसार के अन्य देशों की कन्याओं को हिन्दी में
प्रेमपत्र लिखेंगे और यदि प्रेमपत्रों का असर न हुआ,
लड़की शादी करने को राज़ी न हई, तो नाक़
तो राष्ट्रभाषा की कटेगी।
पहला प्रेमपत्र लिखते समय,
पहली समस्या थी कन्या की स्थिति निश्चित करना की मरे
जीवन में वह क्या है, क्यों है, होकर क्या करेगी, फ़िलहाल
मामला कहाँ अटका है वग़ैरह। आख़िर उसकी स्पेसिंग
करनी होती है कि हे मेरी नींद चुरानेवाली, सपनों में बिना पुछे
आनेवाली, अर्थात् तय हो कि उम्र के पूरे नक्शे में वह
खड़ी कहाँ है। उसे प्रतिष्ठित करना होता है। मुहल्ले
की सुन्दर लड़की को शहर की सुन्दर लड़की कहना होता है।
मैं तो उसे सब कुछ सम्बोधित करने को तैयार
था क्योंकि अपना तो ग़ालिब के शब्दों में यूँ था कि ’खत
लिखेंगे गर्चे मतलब कुछ न हो। हम तो आशिक हैं तुम्हारे नाम
के।’ यह सोचकर कि जब प्रेमपत्र लिकने की शुभ
प्रवृति आरम्भ ही कर हरे हैं, तो शुरु में
किसी अनुभवि व्यक्ति से तकनीकी मार्ग-दर्शन मिल जाए,
तो कोई हर्ज़ नहीं हमने एक बड़े भाई कस्म के मित्र,
सलाहकार और दार्शनिक के सम्मुख अपनी समस्या रखी,
जिन्होंने अपने जीवन में इतने प्रेमपत्र लिखे और लिखवाये थे
कि मुहल्लों में बदनाम मगर पोस्ट ऑफ़िसवालों की नज़रों में
सम्मान के पात्र थे।
वे मुझसे पूछने लगे कि लड़की का नाम क्या है ? मैंने कहा,
“नाम तो नहीं बताऊँगा । नहीं तो क्या भरोसा तुम ही लिख
मारो।“ वे बोले कि प्रेमपत्र तो नहीं कि जब गवर्नमेंट से लोन
चाहिए, तभी अप्लाई करो।“ वे बोले कि बात ज़रा ब्लैक ऎंड
ह्वाईट में आ रही है, इसलिए सोच-विचार लेना चाहिए। ऐसे
कहा, “प्रेम अन्धा होता है, इस लिए सोच – विचार
लेना चाहिए। मैंने कहा, प्रेम अन्धा होता है, यदि टटोलकर देख
लें, तो हर्ज़ क्या है ? पड़्ता लेना ज़रुरी है। वे ओले, भाई, वे
परिस्थितियाँ उत्पन्न करो, जिनमें लड़की क प्रेमपत्र
भेजना ज़रुरी हो जाए।“ मैंने कहा, “जब तक प्रेमपत्र
नहीं लिखूँगा, परिस्थिति का उत्पन्न होना कठिन है।
अजी प्रेम अपने आप में एक परिस्थिति है, पत्र एक
आन्तरिक मज़बूरी है।“
और वह फूटा। ’जो मैं ऎसा जानती, प्रीत करे दुख हाय’ और
’दो नैना मत खाईयो, पिया मलन का आस’ टाइप
की पस्तियाँ मैंने उसी ज़माने में पहली बार पढ़ी। यदि प्रेम
ठीक-ठिकाने का हो, तो कविता अपने ढंग से ज़रुर मदद
करती है। उन प्रेमपत्रों की प्रति मैंने सँभाल कर नहीं रखी,
क्योंकि नया-नया दफ़्तर खुला था, प्रेमपत्र रखने का रिवाज
नहीं था। पर यदि आज होतीं तो समीक्षक और तटस्थ पाठक
यह ध्यान देते कि उनमें उपमाओं का बाहुल्य, भाषाका प्रवाह,
प्रसाद के साथ माधुर्य गुण का ऎसा सम्मिश्रण है, जो गहरे
अध्यन से ताल्लुक रखता है।
वह लड़की भी क्या खूब लड़की थी। बंजर ज़मीन में गुलाब
की तरह खिली थी।
जब देखती थी, एक अज़ीब टाइप का खंज़र
चल जाता था। ऐसे खंज़र आजकल प्राचीन
शास्त्रों की प्रदर्शनी में नज़र आती हैं
वैसी लड़कीयाँ भी आज होती होंगी, पर प्रेमपत्रों का स्तर,
जो हिन्दी के विकास के साथ अज़ादी के इतने वर्षों बाद
उठाना चाहिए था, नहीं उठ पाया। सम्बोधन और संवाद के
स्तर पर वही पुराने घिसे-पिटे मुहावरे चले आ रहे हैं। खेद है,
कमबख्त आजकल भी सुन्दर कन्या को चाँद ही कहते है। मुझे
चाँद पुराने मुरब्बे की तरह लगता है, जो न खा सकें न पि सकें।
या हो सकता है, मनुष्य के जीवन में सुन्दर कन्याओं
की यही स्थिति हो।
अब अपना क़िस्सा पूरा हुवा। हुआ यह कि जिस सुन्दर
लड़्की के लिए प्रेमपत्र लिखा था, उसके लिए अन यह
प्रेमपत्र पाने का पहला अवसर था और उसी नौसिखिएपन में
वह भूल कर गयी। वह माताजी को मिल गया। माताजी ने
पिताजी को बताया, पिताजी ने इसे हमारे स्कूल के हेडमास्टर
को बताया और हेडमास्टर ने मेरा सिर तोड़ने का निर्णय
लिया।
उअनके द्वारा पिटनेवालों का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा है,
उनमें एक नाम इनका अब मेरा है। उनके द्वारा पिटे हुए लड़के
बाद में बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त हुए। शायद हेडमास्टर ने इस
होनहार बालक की भी प्रतिभा पहचान ली थी की यह पत,
जो आज पालने में बैठा प्रेमपत्र लिख रहा है, कल बड़ा लेखक
बनकर राष्ट्र के समस्त नर-नारियों को पढ़ने योग्य साहित्य
का सृजन करेगा। अत: इसे पीटना जरुरी है। हडमास्टर महोदय
ने मुझसे पूछा, मैंने कहा, “आत्मभिव्यंजना में लिए साहस
पहली आवश्यकता है। फिर चाहे वह प्रेममपत्र हो,
मन्त्री महोदय को
शिकायत करना हो , सम्पादक के नम पत्र या दीगर
बिधा हो ।“ वे मेरे बयान की गम्भीरता को समझ नहीं पाये;
और मैं कहता हूँ कि बस यहीं हमारी रष्ट्रभाषा पिछड़ी है।

बिना साहस के हम चुनौती का सामना कैसे कर सकते हैं और
जो दर्ज़ा इसे मिलना चहए, कैसे दिला सकते हैं ?
वह लड़की, जिससे मैंने पहला प्रेमपत्र लिखता, पता नहीं,
आज कहाँ है ?
पर जहाँ भी होगी, मुझे एक पत्रलेखक के रुप में
कभी न बोली होगी। सोचिए, सुन्दरी, रानी, कोयल्,
तितली आदि नानासम्बोधनों के अस्त्र-शस्त्रो से लैस,
जैसा ज़ोरदार हमला मैने किया था, वैसा उसके पुज्य पतिदेव न
भी कभी नहीं कहा गया।
उसकी किस्मत ज़ोरदार होगी, पर अपनी क़लम जरदार थी। वे
लड़कियाँ, जिन्हें प्रेमपत्र लिखे वे, आज जाने कहाँ चली गयी।
सिर्फ़ ज़ोरदार कलम शेष रहा गयी है, जिसे
राष्ट्रभाषा की सेवा में अर्पित किये हूँ और जिस प्रकर
लड़की चाहे न मिले,मगर मैंने प्रेमपत्र के लेखन का स्तर
नहीं गरने दिया, उसी प्रकार मर लकिर की स्थितियों में
अन्तर न आये, पर राष्ट्रभाषा का स्तर उठाये हुए हूँ,
सो सामने है।

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   पुस्तक : - हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे
   लेखक : - शरद जोशी

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